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य॒ज्ञे दि॒वो नृ॒षद॑ने पृथि॒व्या नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति । इन्द्रा॑य॒ यत्र॒ सव॑नानि सु॒न्वे गम॒न्मदा॑य प्रथ॒मं वय॑श्च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñe divo nṛṣadane pṛthivyā naro yatra devayavo madanti | indrāya yatra savanāni sunve gaman madāya prathamaṁ vayaś ca ||

पद पाठ

य॒ज्ञे । दि॒वः । नृ॒ऽसद॑ने । पृ॒थि॒व्याः । नरः॑ । यत्र॑ । दे॒व॒ऽयवः॑ । मद॑न्ति । इन्द्रा॑य । यत्र॑ । सव॑नानि । सु॒न्वे । गम॑त् । मदा॑य । प्र॒थ॒मम् । वयः॑ । च॒ ॥ ७.९७.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:97» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अथ प्रसङ्गसङ्गति से ब्रह्मणस्पति विद्या के पति परमात्मा का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र, यज्ञे) जिस यज्ञ में (देवयवः) देव ईश्वर परमात्मा को चाहनेवाले (नरः) मनुष्य (मदन्ति) आनन्द को प्राप्त होते हैं और (नृषदने) जिस यज्ञ में (दिवः) द्युलोक से (पृथिव्याः) पृथिवी पर (गतम्) विद्वान् लोग विमानों द्वारा आते हैं और जिस यज्ञ में (वयः) ब्रह्म के जिज्ञासु (प्रथमम्) सबसे पहले (मदाय) ब्रह्मानन्द के लिये आकर उपस्थित होते हैं, उसमें (इन्द्राय) “इन्द्रतीतीन्द्रः परमात्मा” परमात्मा की (सवनानि) उपासनायें (सुन्वे) करूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु जनों ! तुम उपासनारूप यज्ञों में परस्पर मिल कर उपासना करो और द्युलोक द्वारा विमानों पर आये हुये विद्वानों का आप भली भाँति सत्कार करें। यहाँ जो ‘सुन्वे’ उत्तम पुरुष का एकवचन देकर जीव की ओर से प्रार्थना कथन की गयी है, यह शिक्षा का प्रकार है, अर्थात् जीव की ओर से यह परमात्मा का वचन है। यही प्रकार “अग्निमीळे पुरोहितम्” ऋक् १, १ १। “मैं परमात्मा की स्तुति करता हूँ” इत्यादि मन्त्रों में भी दर्शाया गया है। इससे यह सन्देह सर्वथा निर्मूल है कि यह वाक्य जीवनिर्मित है, ईश्वरनिर्मित नहीं, क्योंकि उपासना प्रार्थना के विषय में सर्वत्र जीव की ओर से प्रार्थना बतलायी गयी हैं। अन्य उत्तर इसका यह भी कि ग्रन्थ में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही ग्रन्थकर्त्ता की ओर से होते हैं, फिर भी पूर्वपक्ष अन्य की ओर से और उत्तरपक्ष ग्रन्थकर्त्ता की तरफ से कथन किया जाता है। यही प्रकार यहाँ भी है और ऋग्वेद के दशवें मण्डल के अन्त में “सङ्गच्छध्वम् संवदध्वं” ॥ ऋ. मं. १० सू. १९१-२ ॥ यह तुम्हारा मन्तव्य और कर्तव्य एक सा हो और “समानी व आकूतिः समाना   हृदयानि वः” ॥ ऋ, १०।१।९१।४॥ तुम्हारा भाषण और तुम्हारे हृदय एक से हों, इस स्थल में ईश्वर ने अपनी ओर से विधिवाद को स्पष्ट कर दिया, जिसमें गन्धमात्र भी सन्देह नहीं ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ प्रसङ्गसङ्गत्या विद्यापतिर्ब्रह्मणस्पतिर्वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र यज्ञे) यस्मिन्यज्ञे (देवयवः) ईश्वरं कामयमानाः (नरः) मनुष्याः (मदन्ति) हृष्यन्ति तथा च (नृषदने) यत्र यज्ञे (दिवः) द्युलोकात् (पृथिव्याः) पृथिव्यां (गमत्) विद्वांस आयान्ति, यत्र च (वयः) ब्रह्मणो जिज्ञासवः (प्रथमम्) प्राक् (मदाय) ब्रह्मानन्दायोपतिष्ठन्ते, तत्र (इन्द्राय) परमात्मने (सवनानि) उपासनाः (सुन्वे) कुर्याम् ॥१॥